Thursday, January 14, 2010

तालाश

  • चाँदनी रात मै कभी सुबकता हूँ तो कभी सिसकता हूँ ........

    सुबह शाम गमें लहू पीता हूँ, न हो सका किसी का

    सारे ज़िन्दगी जिसके लिये वफ़ा करता रहा, वो भी गद्दार कहा

    झूठ के कोहरे में मेरी वफ़ा का भाष्कर कहीं छीप सा गया

    मुझसे है पुरानी यारी मेरे बदकिस्मती की ,

    कभी मै जीतता हु कभी वो जीतता हैं

    इस जीत हार के खेल मै वफादार से गद्दार कहलाता हूँ

    सुबह शाम गमे लहू पीता हूँ

    कभी सुबकता हूँ कभी सिसकता हूँ........

    उन्हें शायद पता नहीं नकली सोने में कितनी चमक है

    उस नक़ल के चकाचोंध में सच्चा सोना खो गया

    लेकिन है विश्वास मन में ,एक दिन ऐसा आयेगा

    सत्य की आंधी आयेगी और झूठ का कोहरा फट जायगा

    फिर भाष्कर लालिमा लिये छितिज पर लहलहाएगा...

    लेकिन तब तक देर बहुत देर हो जायगा .............................

    अभाष आनंद, व्याख्याता- मनोविज्ञान विभाग, मधेपुरा कॉलेज, मधेपुरा

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